काँप रही है थर-थर काकी
जैसे हिलें हवा में पत्ते
गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाये सारे
उलट-पुलट कर कपड़े-लत्ते
घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते
दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाये
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आये
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।
-कृष्ण शलभ
(1945)
जैसे हिलें हवा में पत्ते
गर्मी को धकिया जाड़े ने
बंद कर दिया, तुम्हे पता है
और न जाने कहाँ छुपाकर
चाबी को रख दिया पता है
ढूँढ़ रहे पगलाये सारे
उलट-पुलट कर कपड़े-लत्ते
घर से नहीं निकलने देती
करे ठाठ से धींगा मुश्ती
सूरज भी सहमा रहता है
लड़ता नहीं लपक कर कुश्ती
मेरी रेल ठीक होती तो
इसे छोड़ आता कलकत्ते
दिन में हवा रात में पाला
कोहरा हटता नहीं हटाये
सारे रस्ते बंद पड़े हैं
गर्मी कहो कहाँ से आये
जला अंगीठी कोशिश करते
जुम्मन काका, चाचा फत्ते।
-कृष्ण शलभ
(1945)
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