अगर पेड़ पर लटकी होतीं
रंग-बिरंगी मछलीं
तो मैं उनसे बातें करता
ढेरों अगली-पिछली
अगर नदी में सेब, संतरा
या अनार ही उगता
तो मैं बीच धार में जाकर
उसके दाने चुगता
चंदा गोल न होकर
कुछ चौकोर अगर हो जाता
तो मैं उसमें डोर बाँधकर
खूब पतंग उड़ाता
सूरज अगर कहीं बन जाता
एक बर्फ का गोला
तो मैं उसको तोड़-तोड़कर
भरता अपना झोला
बादल कोई आसमान से
नीचे अगर उतरता
तो मैं उसका रथ बनवाकर
खूब सवारी करता
लेकिन मन का चाहा
पूरा भला कहीं हो पाता ?
आखिर अपना मन मसोसकर
मैं बैठा रह जाता
-योगेन्द्र दत्त शर्मा
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